Thursday, January 13, 2011

परिचय, प्रणय और सत्यानाश!
उनकी हरकतें अन्य सामान्य युवकों जैसी ही थी किन्तु अचानक एक परिचय ने उन्हें असामान्य बना दिया । उनकी स्थिति भी चुनाव हारे प्रत्याषी जैसी हो गई थी । सभी कुछ सामान्य था । घोर महंगाई में भी वे मुस्कुरा लेते थे, क्या नाम था उसका ? जिससे मिलने के बाद उनकी ऐसी स्थिति र्हु । नाम कुछ भी हो क्या फर्क पड़ता है । वो नहीं होती, तो क्या और होती, जवानी में इस तरह के एक्सीडेन्ट के लिए कोई न कोई लड़की तेज रफ्तार से आ रही गाड़ी सिद्ध होती ही है । एक्सीडेन्ट जितनी जल्दी हो जाय उतना अच्छा, हर नवयुवक के जीवन में इस तरह के एक्सीडेन्ट होते ही हैं, जिसके जीवन में यह दुर्घटना नहीं होती वे अपने आपको अभागा करार देते हुए कह उठते हैं, ‘‘हसरत ही रही हम से भी कभी कोई प्यार करता‘‘ । 


 ऐसा नहीं था कि यह उनका पहला परिचय रहा हो । उनका बहुतों से परिचय हुआ । एक-दूसरे को जाने, इसके पहले ही संबंधों की इतिश्री हो गई । सी.आई.ए. आई.एस.आई. के जाल की ही तरह यह परिचय उन्हें घेरे में लेते हुए ‘प्रणय‘ तक ले गया । फिल्म से मिली प्रेम की विरासत को उन्होंने सी तरह आत्मसात कर लिया, जैसा कि हर युवक करता है या करना चाहता है । कोर्स की किताबों को पढ़ने की बजाय वे ‘ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े से पंडित होय‘ के फार्मूले पर विष्वास की उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे थे जो उनके प्राध्यापकों ने बीच में छोड़ दी थीं । प्रेम के मामले में उन्हें हिन्दी के प्राध्यापकों से मार्गदर्षन लेना चाहिये किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । इसी कारण एक ही झटके में उनकी ये हालत हो गई ।


 परिचय ही वो सेतु है जो व्यक्ति को प्रणय की नदी तक ले जाकर सत्यानाष रूपी सागर में समाहित कर देता   है । वे आज तक अपने उस परिचय को कोसते हैं जिसने उन्हें एक नकारा प्रेमी मात्र रख छोड़ा है । काम्पटेटीव एकजाम की तैयारी में रतजगा करने की बजाय मेहबूब की यादों में रतजगा कर उन अपने को बूनने में इन्होंने अपना बहुमूल्य समय लगा दिया जो इन्हें एक सफल आदमी बना सकता था । महाविद्यालय वह मिलन स्थल है, जहां दो प्रेमी बिना किसी रोकटोक के, मां-बाप की आंखें में मन लगाकर पढ़ाई कर रहे हैं, रूपी धूल झोंककर आराम से मिल सकते हैं । महाविद्यालय को षिक्षा का मंदिर कहने के बजाय प्रेम की मंदिर कहा जाना चाहिए । यदि कोई छात्र चाहे तो प्रेम में महाविद्यालय का योगदान विषय पर षोध प्रबंध तक लिख सकता है । 


 सावन के अंधे की तरह प्रेम अंधे को भी सब हरा ही हरा दिखाई देता है । वे भी औसत भारतीय युवक प्रेमियों की तरह प्रेम के मामले में दिमाग की बजाय दिल से काम ले बैठे । गोरा रंग, तेज नाक-नक्षा, षोख हंसी, ये हथियार काफी थे उन्हें बरबाद करने । प्रेम में लिप्त रहने के कारण वे दोस्तों में अपना अलग रौब रखते हुए सोंचते ‘‘अपन भी रखते हैं‘‘ अधिकांष छात्रों की तरह इन्होंने भी यह भ्रम महाविद्यालय में प्रवेष के साथ ही पाल रखा था कि ‘ग्रेजुएट‘ होते ही सरकारी नौकरी जो मिल ही जायेंगे । सरकारी नौकरी को वे जादुई चिराग समझते, जिसके मिलते ही सारे कष्टों से मुक्ति मिल जाती है और आदमी बिना ज्यादा श्रम किये सीधे उस मोक्ष को प्राप्त करता है जो उसने देखा ही नहीं । नौकरी उस मायावी सुंदरी जैसी है जो अच्छे-अच्छे सपने बुनवाती है, परंतु यथार्थ में जो कभी नहीं मिलती और यदि अब मिल भी जाये तो वह भी ‘संविदा‘ पर होती है । 


 प्रेम ने उन्हें घोर भागयवादी बना दिया । मेहबूबा की जुल्फों में उन्हें जुएं रूसी की जगह सावन की घटा दिखाई देती है । मुख तो चांद-सूरज था ही, जात-पांत, उंच-नीच, अमीर-गरीब ये षब्द उनकी डिक्षनरी में थे ही नहीं । वे सारी पुरानी रूढ़ीवादी परंपरा को धराषायी करके नए समाज की स्थापना करना चाहते । एक ओर सरकारी नौकरी में पहुंचते ही लखपति बनने की ख्वाहिष तथा दूसरी ओर एक आदर्ष समाज की स्थापना । ये सोच उन्हें कहीं बाहर से नहीं अपने ही परिवेष से मिली थीं । वे कुछ कर गुजरना चाहते थे । उनका इस सत्य से साक्षात्कार नहीं हुआ था कि प्रेम करना और बुद्धिमान बने रहना दो अलग-अलग बातें   हैं । इसलिए बुद्धिमान प्रेमी अपनी प्रेमिका की षादी अन्यत्र कराकर स्वयं सजातीय लड़की से षादी करके मां बाप की खुषी के साथ-साथ बहुत से धन धान्य को प्राप्त करके अपनी जातिगत संस्कृति को बचाये रखते हैं । षादी करने से जात जाती है प्रेम करने से नहीं । 


 खैर, देर-सबेर जो होना था हुआ । पोस्ट ग्रेज्युएषन की डिग्री लटकाए रोजगार कार्यालय की लाईन में अपनी बेरोजगारी का पंजीयन कराने के साथ ही उनका मोह भंग हुआ । युवा बहनों की दहेज अभाव में न हो रही षादी ने उनके आदर्ष को झकझोर दिया । किषोरावस्था में चढ़ा आदर्ष व परिवर्तन का भूत धीरे-धीरे समूचे देष में फैले भ्रष्टाचार एवं सामाजिक मान्यताओं के भूत के आगे बौना ही घुटने टेकने लगा । जीने-मरने की कसम खाने वाली दुनिया की सबसे सुन्दर लड़की उनकी अपनी मेहबूबा ने उन्हें उन्हें इस सत्य से परिचित करा दिया कि जब तक तुम्हें कोई अच्छी नौकरी नहीं मिल जाती तब तक मैं षादी की पहल कैसे करूं । महबूबा ने उन्हें विवषता के भ्रमजाल में भरमा कर इस सत्य से भी अवगत करा दिया कि जल्दी करो घर में बहुत से अच्छे लड़कों के रिष्ते आ रहे हैं । मैं कैसे मना करूं । मम्मी पापा मान नहीं रहे हैं । सपनों का महल यथार्थ की भूमि पर खड़े होते ही भरभरा गया । मिलन के नगमे गाने वाले होठों पर बेवफाई के नगम गूंजने लगे । समय बितता गया । नौकरी थी कि कम्बख्त निराकार ईष्वर हो गई । जो लाख ढूंढे से भी मिलती ही नहीं । मेहबूबा ने समय की गति को पहचानते हुए सजातीय इंजीनियर युवक से विवाह कर अपने जीवन को धन्य कर लिया ।